मेरी नज़र हिन्दी की किताबों पर थी जो अब तक नज़र नहीं आ रहीं थीं। 6-7 स्टॉल पार करने के बाद “ मेरी आस्था भारत” श्री अटल बिहारी वाजपेयी कृत पर पड़ी। इस पुस्तक में अटल जी ने अपनी सारी स्मृतियों को शब्दों और चित्रों के माध्यम से संजोया है। एक दूसरी पुस्तक “INDIA- 150 YEARS IN PHOTOGRAPHS” जिसमें भारतगाथा के 150 वर्षों को चित्रों के माध्यम से संजोया गया है। इस प्रदर्शनी कुछ किताबें ज्ञानवर्धक थीं सोचा खरीद लूँ पर मेरी तंग जेब इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। वहाँ उपस्थित छात्र अपनी मन-पसंद पुस्तक देख रहे थे। कुछ के चेहरे खुश तो कुछ के चेहरे में मायूसी साफ झलक रही थी। समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि यह मायूस धड़ा हिन्दी पाठक वर्ग ही है। मायसी काफ़ी हद तक ठीक भी लगती है क्योंकि इस पुस्तक मेले में हिन्दी किताबों की तादात भी कम थी। हिन्दी पर अंग्रेजी की किताबें भारी थीं। संस्थान के विभागों के विभागाध्यक्ष भी इस प्रदर्शनी में अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे थे। उनके साथ छात्रों की एक छोटी टोली थी। छात्र अपनी पसंद की पुस्तकें उनसे पुस्तकालय के लिए रेफर करवा रहे थे। कुछ किताबों के नाम वे स्वयं सुझा रहे थे कि फलां किताब अच्छी है। मेले में सब इधर-उधर घूम रहे थे। मैं भी घूम रहा था कि मेरी नजर कोने में पड़ी एक किताब पर पड़ी। मैं सरपट भागकर उसको जल्द से जल्द पा लेना चाहता था। यह किताब अंकुर बुक डिस्ट्रीब्यूटर के स्टॉल के एक कोने में पड़ी थी। दरअसल इस किताब के शीर्षक “मीडिया-वेश्या या दलाल” ने मुझे अपनी ओर खींचा था। यह किताब दिल्ली के ही खोजी पत्रकार अखिलेश अखिल ने लिखी थी। किताब राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, गांव-गंवई और इसके चक्रव्यूह में फंसे अच्छे-बुरे लोगों, नेताओं, दलालों और लोकतंत्र को कलंकित करने वाले मानवों व कथित महामानवों को चरित्रित करती है। तब की पत्रकारिता और आज का सच, तब की राजनीति और आज की हकीकत, तब के लोकतंत्र और आज के लोकतंत्र के रक्षकों की एक-एक बात और करतूतों को भी उजागर करती है। हालांकि इस किताब में ऐसे कई आलेखों, रपटें शामिल नहीं किया गया है जिन्हें शब्द-चित्रों के जरिये आधुनिक लोकतंत्र के कथित लंबरदारों की पोल खोली गई थी। इसमें केवल राजनीति की ही बात नहीं है, जीवन के अनेक रंगों को भी इसमें शामिल किया गया है। इस पुस्तक को कई खण्डों में बाँटकर समाज, देश और राजनीतिक व्यवस्था को समझाने की कोशिश की गई है। यानी इस पुस्तक में हर शक्ल व व्यवस्था देखी जा सकती है जो अत्यंक मोहक है और विद्रुप भी। पुस्तक पढ़ने के बाद मन में एक सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे बिना पत्रकारिता की जा सकती है? इस सवाल का ज़िक्र मैंने अपने मित्र कुलदीप से किया। वह मानता है कि भ्रष्टाचार से अछूते रहकर भी पत्रकारिता की जा सकती है। उसने मुझे कुछ ईमानदार और सफल पत्रकारों के नाम भी बताए। लेकिन वह भी मीडिया हाउस के दबाव को लेकर चिंतित है। उसकी बात सुनकर कुछ राहत मिली। फील्ड में घुसने पर क्या होगा, पता नहीं। अब रहना तो इसी दलदल में है।
Thursday, January 27, 2011
रहना तो इसी दलदल में है..!
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