Thursday, November 10, 2011

मीडिया को आखिर ये क्यूँ नहीं दिखता..



किसी भी दिन का कोई भी अख़बार उठा लीजिए। आपको दो पन्ने खेल के, दो पन्ने फिल्म और अन्य मनोरंजन के मिल जाएंगे। विज्ञापनों के बाद यदि जगह बची तो सरकारी खबरें और फिर अपराध को पर्याप्त जगह। गोया देश में सामाजिक-आर्थिक समस्या है ही नहीं। जब देश री आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से जूझ रहा है, तब पर्यावरण, शिक्षा, खाप या किसानों की आत्महत्या के लिए  दो-चार फीसदी जगह बचती है। कई बार लगता है कि रोमन साम्राज्य की कहावत कि यदि आप हमें रोटी नहीं दे सकते हैं तो सरकाट दीजिए, अब पूरी तरह से फिट हो रही है। 

   लोग रोटी के लिए कराह रहे हैं, पर उनके सामने किरकिट (क्रिकेट) या रॉ-वन परोसा जा रहा है । येड्डी-रेड्डी, कलमाड़ी या राजा के भ्रष्टाचार की ख़बरें पढ़कर उल्टी आने लगती है, पर अख़बार वालों के लिए जरूरी है येड्डी (येदियुरप्पा) की जमानत। क्या सचिन का शतक हजारों-लाखों की भूख मिटा देगा? क्या मोहम्मद आमिर, सलमान बट्ट या मोहम्मद आसिफ को जेल में डालने से समाज का भला होगा? नहीं न, फिर भी अख़बार रंगे पड़े हैं इन खबरों से। इसके बजाय किसानों की छीनी जा रही जमीन, पहले बंद पड़े कारखाने और टीसीएस या आईआईटी या जैतपुरा में फ्रेंच कम्पनी के नाभिकीय रियेक्टर के लिए किसानों का सड़क पर आना समाज हित के लिए ज़्यादा खास है, पर ज़्यादा अख़बारों, विशेषकर भाषाई अख़बारों में ये ख़बरें बिलकुल गायब हैं। क्या शाहरुख खान से ये ख़बरें ज़्यादा खास या दिलचस्प नहीं हैं? पर क्यों दे वे ये ख़बरें? धर्म की तरह मनोरंजन भी लोगों को भूखे ही मीठी नींद सुला सकता है। जब लोग सो जाएंगे तो सियासती लोगों के खिलाफ़ कैसे बोलेंगे। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी और सियासती लोगों की मदद करना तो अख़बार वालों की मजबूरी है।
  यहां विरोध मनोरंजन से नहीं है, पर जब हर जगह मनोरंजन ही हो और समाज को हाशिये पर डाल दिया जाए तो तकलीफ होती है। इसको शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे मुद्दों से नौ गना ज़्य़ादा तरजीह मिल रही है और सामाजिक मुद्दों को कोने में पटक दिया गया है। तब दिल और दिमाग प्रचार माध्यमों की ईमानदारी पर सवाल खड़े करने लगता है। भूखे पेट क्या लेडी गागा या शाहरुख खान को देखा जा सकता है? भारत की जीत को सराहा जा सकता है? फार्मुला-वन रेस से भारत को क्या मिलेगा ? सभी अख़बार फार्मुला-वन को जोरशोर से प्रचार कर रहे थे, जो वैभव का फूहड़ प्रदर्शन और ग़रीबों का मजाक है।
  पेट्रोल के बढ़ते दामों के खिलाफ रोजाना रोना रो रहे हैं, पर पेट्रोल के अपव्यय, विदेशी मुद्रा के दुरुपयोग के खिलाफ लिखने के बजाय एफ-वन पर पन्ने भरना कहां की समझदारी है। शायद बाजारी अर्थव्यवस्था में बाजारू चीजें परोसना उसके टिके रहने के लिए ज़्यादा जरूरी है। वैसे भी चार्ल्स डार्विन की 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट थ्योरी' ज़िंदगी के हर मोड़ पर लागू होती है। अख़बार वाले भी बाजार में सर्वाइव होना चाहते हैं, इसलिए कभी पेड न्यूज़ तो ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेजों के हाथों बिक जाते हैं और छोड़ देते हैं मतदाताओं, छात्रों को लुटने के लिए। कभी किसी ने चिंता की है लुटते बच्चों की, मध्यम वर्ग के परिवारों की। आज हर अख़बार इंजीनियरिंग कॉलेजों के विज्ञापनों, वहां होने वाले कार्यक्रमों से पटे हुए हैं।
  द हिंदु ने एक ख़बर छापी थी कि पिछले पंद्रह वर्षों में तकरीबन ढाई लाख लोग आत्महत्या की है, पर कितने पत्रकारों ने इन आत्महत्याओं की जड़ में जाकर मामले की तहकीकात करने की कोशिश की है। दूसरी ओर इन्हीं किसानों के उगाए करास से बने कपड़ों को पहनकर लैक्मे फैशनवीक आयोजित हुआ, जिसे कवर करने के लिए 512 पत्रकार मौजूद थे।
  क्रिकेट शुरू होते ही हर चैनल वाला सुबह से शाम तक ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर और सपर में क्रिकेट परोसता दिखता है, पर सड़कों के लिए छीनी गई जमीन, बेघरबार हुए किसान, टूटे हुए मकान उन्हें दिखाई नहीं देते। कहीं पर भी क्रिकेट हो, सुरक्षा के नाम पर कई दिनों के लिए स्टेडियम के आसपास काम करने वालों की रोजी-रोटी छीन ली जाती है, पर पत्रकारों को उनकी भूख, उनका दर्द सुनाई नहीं पड़ता। वे युवराज, हरभजन के ठहाकों, नाच की थापों या सचिन-राहुल की शतक-अर्द्धशतक में मशगूल हो जाते हैं। उनकी निगाह इनकी बीवियों में सौन्दर्य बोध ढूढ़ने लगती है। डाइनिंग टेबल पर क्या खाया जा रहा है, क्या परोसा जा रहा है, पर इनको उगाने वाले, इनको बनाने वाले पूरे चलचित्र से ओझल हैं।
  यूरोप में जब भी कोई कारखाना खोला जाता है, तब जिन किसानों की जमीन अधिग्रहित की जाती है, उसे उसी कारखाने में नौकरी मिलती है, पर भारत में हर खाने, हर संस्था के समय छीनी गई जमीन के मालिक सड़क पर आ जाते हैं। बाद में कारखाने बंद हो जाते हैं और जमीन बड़े-बड़े बिल्डरों के लिए तब्दील हो जाती है। अख़बार वालों को टीसीएस, इंफोसिस या अमेरिका के लिए सस्ते इंजीनियर बनाने वाले आईआईटी की फिक्र है, किसानों की नहीं। फिर पंद्रह वर्षों में कारखानों की नौकरियां कम ही हुई हैं। टिस्को के पास 1991 में पौन लाख से अधिक कर्मचारी थे और वह दस लाख टन लोहा उत्पादित करता था। 2005 में उसका उत्पादन तो पांच गुना बढ़ गया, पर कर्मचारी सिर्फ चावालिस हजार रह गये। इसी तरह नब्बे के दशक में चौबीस हजार कर्मचारियों की मदद से दस लाख वाहन बनाती थी।
अब यह कम्पनी चौबीस लाख वाहन बनाती है, साढ़े दस हजार कर्मचारियों के सहारे। यही हाल भारत की अधिकतर कंपनियों  का है।  इनका मुनाफा और उत्पाद तो दिनोदिन बढ़ता जा रहा है लेकिन यहाँ काम करने वाले कामगारों/मजदूरों की गिनती कम होती जा रही है । जि पर ओचने की ज़रूरत है। अब इन कारखाने के विस्थापितों का पता लगाकर उनकी समस्याओं को हल करने वाला कोई नहीं। क्या कोई यह पता नहीं नहीं लगा सकता कि जो कंपनियां बंद हो गई हैं, उन्हीं की जमीन पर विप्रो, टीसीएस या इंफोसिस आ जाए। कुछ ख़बरों के अनुसार दिल्ली में एक लाख महिलाएं झाड़ू-पोछे का काम कर रही हैं, वेश्यावृत्ति कर रही हैं और यह पिछड़े राज्यों से आई हैं। मीडिया की नज़रों से यह सब गायब है। क्या भारतीय मीडिया की नज़रों में कभी गोदान के होरी-धनिया, रंगभूमि के सूरदास और मोहनदास का मोहनदास विश्वकर्मा आएंगे। बाजार-अर्थव्यवस्था में अभी तो ऐसा नहीं लगता। इसलिए हमें प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ मानने का भी हक़ नहीं है। हम भी न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका जैसे बहक गए हैं। 

देश की ये नौजवां पीढ़ी फिरंगी हो गई..


शायरी जितनी सहज हो उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है- यही वाक्य जितेंद्र "प्रीतम" के पूरे काव्य-कर्म का आधार वाक्य है। 
बेहद संज़ीदगी से अदब की दुनिया में अपनी दस्तक दे रहे इस रचनाकार की ग़ज़िलयात का लम्स देर का ज़ेहन में महसूस 
होता है। जितेंद्र की शायरी उस्तादाना दांव-पेंच से दूर आम आदमी की जुबान में संवाद करती नज़र आती है। उसके रदीफ़ो-कवाफ़ियात
आम आदमी की ज़िदगी से त' अल्लुक़ रखते हैं।
13 फरवरी सनु 1978 को दिल्ली में जन्में जितेंद्र कुमार ने हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तक अध्ययन किया और वर्तमान में एक निजी कम्पनी में कार्यरत हैं।
जितेंद्र प्रीतम की शायरी सुनने वालों को अपनी-सी लगती है, और यही किसी रचनाकार की सफलता की कसौटी है। जितेंद्र दर्शन से लेकर 
मानवीय संवेदना तक तमात विषयों पर शेर कहते हैं, और उनका हर शेर एक मुक़म्मल एहसास की चादर ओढ़कर सामने आता है।
उन्हीं की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। यह आज के मौजूदा दौर प्रसंगिक सी लगती है।

बन गई बाज़ार दुनिया एक मण्डी हो गई
आज वो इन्सानियत की आग ठण्डी हो गई.

कपड़े अब अलमारियों में सजते हैं, तन पर नहीं
बेहयाई ओढ़ कर तहज़ीब नंगी हो गई.

जो बुजुर्गों के अदब में बारहा झकुती रही
शर्म के सुरमे से रोशन आंख अंधी हो गई.

करती है बेज़ा नक़ल अंग्रेजों की हर बात में 
देश की ये नौजवां पीढ़ी फिरंगी हो गई.

सरकार ने कितनी रियायत दी है कुल आवाम को 
दाल-आटा छोड़ कर हर चीज मंदी हो गई. 
(.यहां मुझे लगा कि पेट्रोल भी जो़ड़ दूं, फिर लगा कि रचनाकार के साथ ज्यादती होगी )

घोटालों की कालिख़ से काले चेहरे हैं नेताओं के
दौर-ए-नौ में ये सियासत कितनी गंदी हो गई.

देखकर "प्रीतम" इसे गिरगिट भी शर्माने लगा
शख़्सियत इंसान की कितनी दुरंगी हो गई.

Thursday, November 3, 2011

सवाल सात अरबवें बच्चे की दुनिया का.


भी़ड़ का भगवान कौन..बहस इस बात पर हो रही है कि दुनिया का सात अरबवां बच्चा किस देश में पैदा हुआ । किस मां ने दुनिया को आंकड़ों का यह बाजीगर दिया। किस देश ने आबादी की इस बुलंदगी का सजदा किया। भीड़ के इस इजाफे से हैरान और परेशान होने के बजाय हम जश्न मना रहें हैं। अपनी तादाद पर खिखिया रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं।  31 अक्टूबर को दुनिया की आबादी सात अरब हो गई है।
 इसको लेकर मीडिया ने भी अपने-अपने गरम तवे लेकर अलग-अलग तरह से चने भूनने की कोशिश की है। 
 वैसे ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो आबादी के इस आंकड़े को उपलब्धि मान रहे हैं। दरअसल, जब से मनुष्य को एक संसाधन माना जाने लगा है, मनुष्य की जगह उसे मानव संसाधन कहा जाने लगा है, तब से दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है, जो बढ़ती हुई आबादी को चुनौती नहीं मानते, पर हमें सात अरब आबादी को चुनौती के रूप में ही देखना चाहिए, क्योंकि धरती की करीब एक तिहाई आबादी को न तो दो वक्त का भोजन मिल पा रहा है और न ही उसके लिए रोजगार की कोई स्थायी व्यवस्था है। इसको लेकर मीडिया में कोई सरोकर देखने को नहीं मिल रहा है कि आबादी पूरे विश्व के लिए भयानक खतरा है। इसे दिखाने के लिए मीडिया ने आंखों में टीआरपी पाने की काली पट्टी बांध रखी है। इसीलिए उसे सारी  समस्याएं एक सी नजर आती हैं।  अब जमाना पूंजीवाद का है, हम पूंजीवाद के सबसे क्रूर चेहरे के सामने खड़े हैं, इसलिए गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने, उनके लिए स्थाई रोजगार की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता से ही नदारद हो गए हैं।
हकीकत तो यह है कि इनका विकासशील देशों की बजाय अमीर और विकसित देशों के कारण ज्यादा नुकसान हुआ है। कुल मिलाकर इस समय यह सवाल अहम नहीं है कि सात अरबवें बच्चे ने कहां जन्म लिया? वह लखनऊ के नजदीक एक गांव में जन्मी नरगिस है या सुदूर मनीला में पैदा हुई डानिका मे कमाचो? असल में ये घोषणाएं प्रतीकात्मक हैं, जो बढ़ती आबादी के साथ ही लड़कियों पर छाए संकट की ओर इशारा कर रही हैं। अब बहस तो इस पर होनी चाहिए कि जब नरगिस और डानिका बड़ी होंगी, तब उनकी दुनिया कैसी होगी? क्या वे खुली हवा में सांस ले सकेंगी और क्या उनके सपनों को पंख लग सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि दुनिया की आबादी डेढ़ दशक से कम समय में एक अरब बढ़ गई है। जब ये दोनों बच्चियां दस वर्ष की होंगी, तब दुनिया की आबादी आठ अरब हो जाएगी। यानी, बढ़ती हुई आबादी मुसीबतों की जड़ तो अब ही बन चुकी है, यदि उस पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव आबादी हम मनुष्यों के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाएगी। न धरती का आकार बढ़ाया जा सकता है और न ही प्राकृतिक संसाधनों की तादाद, यह यही तथ्य याद रखें।
इधर एक और चौकाने वाला सच सामने आ गया है कि हमारे देश भारत में आधी आबादी ग़रीबी के अंधेरे तले अपना जीवन बिताने को मजबूर है। दरअसल अभी हाल में ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी की गई मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में, दुनिया के सबसे ज़्यादा बहुआयामी ग़रीब रहते हैं। भारत में 61 करोड़ लोग ग़रीब हैं, जो कि देश की आधी आबादी से भी ज़्यादा है। 
हालांकि जनसंख्या के इस नए रिकार्ड बनने पर चिंताएं अत्याधिक हैं। पृथ्वी पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के साथ साथ ग़रीबी की बढ़ती दर भी चिंता का एक विषय बना हुआ है.
आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि पृथ्वी आखिर कितने और दिनों तक निरंतर बढती हुई जनसँख्या का भार सह सकेगी?
ये पाया गया है कि जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि विकासशील देशों में हो रही है.
विश्व के 10 सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों में सिर्फ़ तीन विकसित देश अमरीका, रूस और जापान शामिल हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के कारण समाज में मृत्युदर में गिरावट आती है और जन्म दर में वृद्धि।
संयुक्त राष्ट्र के ताज़े अनुमान के मुताबिक़ साल 2050 तक दुनियां की 86 प्रतिशत आबादी विकसित इलाक़ों में निवास करेगी। जबकि 2050 तक जनसंख्या में होने वाली वृद्धि में विकासशील देशों का योगदान भी 97 प्रतिशत रहेगा. जनसंख्या वृद्धि से एक और रुझान सामने आया है कि- ग्रामीण आबादी का पलायन और शहरी आबादी का बढ़ना। वर्ष 1800 में दुनिया की तीन फीसदी से भी कम आबादी शहरों में रहती थी, जबकि वर्ष 2008 के अंत तक यह आबादी 50 फीसदी से भी ऊपर पहु्ंच चुकी है। यह शहरी आबादी ठीक उतनी ही जितनी भारत में ग़रीबों की संख्या। अब एक करोड़ या उससे ज्यादा की आबादी वाले 26 महानगर हो गए हैं। इसमें टोकियो, गुआनजा, सियोल, शंघाई, दिल्ली, मुंबई, मनीला, जाकार्ता, कराची, ओसाका, ढाका, कोलकाता और बीजिंग शामिल हैं।
आंकड़ों के इस माकड़जाल की भी अपनी एक कहानी है। जीवन के इस उतार-चढ़ाव में जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की रफ्तार भी कभी मद्धिम तो कभी तेज होती रही है। मसलन वर्ष 1804 में दुनिया की आबादी एक अरब थी। इसे दुगुना होने में 123 वर्ष लग गए। इसके विपरीत 1927 से 1959 यानी 32 वर्षों में ही इस वश्व की गिनती  में एक अरब का इजाफ़ा हो गया।
बढ़ते शहरीकरण से नष्ट होते जंगल और जमीन से कुदरत पर भी आबादी का बोझ भारी पड़ता जा रहा है। एक साल में इतने सारे लोग जिन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उनको दोबारा उपजाने में प्रकृति को 18 महीने लग जाते हैं। यह समीकरण मानव सभ्यता के लिए कहर सा साबित हो सकता है। धरती पर बढ़ती आबादी को कहीं और बसाने के लिए वैज्ञानिक ध्रुवों की ओर इशारा कर रहे हैं। चंद्रमा और मंगल पर इस दिशा में काम भी चल रहा है। मतलब हम आबादी को रोकने के कारगर तरीके न अपनाकर दूसरे ग्रहों पर किलबिलाने की तैयारी में हैं। खैर ये तो दूर की कौड़ियां हैं। सुकून और संसाधन की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे देशों और महाद्वीपों की ओर भी रुख करेंगे। इससे पुराने समाजों के विलीनिकरण का ख़तरा भी पैदा हो गया है, पर डरने की जरूरत नहीं है। विज्ञान ने जिस प्रकार दूरियों को कम कर दिया है, उससे इस स्थिति में बदलाव जरूरी भी हो गया है। हमें इसके लिए तैयारी भी कर लेनी चाहिए। लेकिन ये सब उनके लिए हैं जो 50 फीसदी ग़रीबी की आबादी में नहीं आते, जिनके पास दो वक्त की रोटी नहीं बल्कि जीवन पर्यंत खाने को है, जो खाए-अघाए हुए हैं। .यह सुख सुविधाएं उनके लिए ही हैं।
 हकीकत यह है कि अस्सी प्रतिशत लोग रो-रोकर जिंदगी गुजार रहे हैं। चालीस फीसदी लोग ठीक से खा नहीं रहे पा रहे हैं और अट्ठाइस फीसदी भूखे रहकर हडि्डयों का ढांचा बने जा रहे हैं। जिंदगी दुश्वार होती जा रही है। दुनिया की आबादी कशमकश में जीवन यापन कर रही है। कुछ लोग हासिल करने की होड़ में जुटे हुए हैं तो कुछ पेट की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ लोग तमन्नाओं और आरजुओं को छूने में उम्र घटा रहे हैं तो कुछ लोग दूसरों को नोचने, खसोटने, लूटने में वक्त बिता रहे हैं। सुख-सुकून, चैन-ओ-आराम सबका लुटा हुआ है। जिंदगी जीने का सलीका बुरी तरह से टूटा हुआ है। दुनिया के कई देशों में आबादी की भरमार है, भारत भी उसी मर्ज का बीमार है। हमारे देश में बच्चे पैदा होने पर जश्न केवल एक दिन मनता है। बस उस दिन के बाद से बच्चा जीवनभर रोता है। ना खाने को रोटी मिलती है ना कमाने को रोजगार। ना सपनों को पनाह मिलती है ना तमन्नाओं का जहां । एक अदद सी चाहत में जिंदगी गुजर जाती है। हर दिन चाहत पास आकर दूर हो जाती है। हर चीज देश में घटती जा रही है, लेकिन आबादी बढ़ती जा रही है। पहले रोटी, कपड़ा, मकान को लोग रोते थे। अब सड़क, पानी, बिजली और रोजगार के लिए भटकते हैं। भीड़ इस कदर बढ़ती जा रही है कि सड़कों पर जिंदगियां टकरा रही हैं। ट्रेन, बसों में ठूंस-ठूंसकर आवाम मंजिल पा रही है। जेब ढीली होती जा रही है। जिंदगी तंगी में जीवन बिता रही है।

Monday, August 29, 2011

वो आए बज़्म में


वो आए बज़्म में इतना तो मीर ने देखा    
फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही
  -मीर

बज़्म यानी सभा। मीर कह रहे हैं कि मैंने बस उन्हें आते हुए देखा और इसके बाद मुझे कुछ होश नहीं।
एक मतलब यह है कि वे जब बज़्म में आए तो उनका चेहरा ऐसे दमक रहा था कि चिरागों की रोशनी
फीकी पड़ गई। मत्ता कहते हैं उस आखरी शेर को जिसमें शायर अपना नाम डाल देता है। मीर का ये मत्ते
का शेर अमर रहने वाला शेर है।
  -शमशेर
मीर तक़ी मीर..

Tuesday, April 19, 2011

अब जब तुम अपने नहीं

आज भी तुम्हारी याद बहुत सताती है

कभी तुम्हारे खत पढ़कर
किताब में छिपा लिया करता था
अकेलेपन में उसका एक-एक शब्द
तुम्हारा चेहरा लिये आता
और घण्टों मुझसे बतियाता रहता था
अब जब तुम अपने नहीं तो
मानो वे शब्द ही खो गये
अब जब किताब खुलती है तो
कोरे कागज के ढेर ही हाथ लगते हैं
अब जब तुम अपने नहीं तो
मानो तुम्हारे सपने भी पराए लगते हैं!

Monday, April 18, 2011

पत्रकारिता- धंधा बनाम सामाजिक सरोकार ...!

पत्रकारिता जन-सेवा का पर्याय है । राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति में जनसंचार माध्यमों का अप्रतिम योगदान है। मीडिया ने विकास के हर पहलु को अपनाया किन्तु अभी तक राष्ट्र के आधार गांवों तक इसकी दृष्टि नहीं गई। आजकल पत्रकारों की सोच शहरी हो गई है। वे गांवों को अपराध, कुरीति, अव्यस्था एवं पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं। कृषि और ग्राम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है एवं 70 फीसदी भारतियों के जीवन स्रोत है। राष्ट्रीय पत्रों में मात्र 6-7 प्रतिशत स्थान ही कृषि, ग्रामोद्योग, एवं विकास से संदर्भित समस्यायों को मिलता है जो चिंतनीय है। खेती, पशु-पालन, बागवानी, हस्तकौशल पहले काफ़ी विकसित था जिसे आन्ग्लशास्कों ने बड़ी चालाकी से श्रीहत किया।

सम्प्रति जनसंचार ही विकास के पर्याय हैं। पत्रकारिता तो अभियक्ति की गहन साधना है। अपने किसानो और उनके गांवों में विकास की ज्योति कैसे प्रतिस्फुटित हो इसी पर ध्यान देकर पत्रकारिता अपने लक्ष्य को पूरा कर सकती है। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं की संख्याओं का कई अखबारों और टेलीविज़न चैनलों में कोई ज़िक्र नहीं हुआ था। इनमें से हर एक चीज़ एक अजीबोगरीब तरीके से दर्शाती है कि भारत का ब्रेव न्यू वर्ल्ड किस तरफ जा रहा है। भारी कटाव का यह एक ज़बरदस्त मापक है। उस खाई का जो एक तरफ तो है पाए हुओं और ज़्यादा पाए हुओं के बीच, और दूसरी तरफ खोए हुओं और हताश लोगों के बीच। हाल के दशकों में देश में टीवी, रेडियो और समाचारपत्र उद्योग में बेतहासा वृध्दि हुई है जिसे देखते हुए उम्मीद पैदा होती है कि इन प्रचार माध्यमों की भूमिका, दायरा और सार्थकता भी वर्ष 2000 की तुलना में खूब बढ़ गई होगी। साथ ही इन माध्यमों का कार्यक्षेत्र भी अब महानगरों तक सीमित नहीं होगा। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में शायद ही कोई बदलाव आया है। इसका कारण यह है कि इन सबमें आपस में समाज के उस वर्ग तक पहुंचने की होड़ लगी रही जिसकी क्रय क्षमता ज्यादा थी। इसी का नतीज़ा है कि इन माध्यमों की गांवों तक पहुंच और कवरेज़ क़रीब-क़रीब नाममात्र की है।

मीडिया परिदृश्य में हुए इन बदलावों ने अनेक चिंताओ और आशंकाओं को भी जन्म दिया है। मीडिया से लोगों की अपेक्षाओं और मीडिया को क्या करना चाहिए तथा वह उन्हें क्या उपब्ध करा सकता है, इस बारे में पुरानी धारणा बदली है। उपलब्ध कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु को लेकर भी चिंताएं हैं- क्या वे मानवीय संवेदना को ठेस पहुंचा रही हैं? क्या वे हमारे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के अनुरूप हैं? क्या मीडिया घरानों के व्यावसायिक हितों के लिए समाचार, मनोरंजन और शिक्षा के लक्ष्यों की बलि दी जा रही है? क्या मीडिया कृषि व ग्रामीण समस्याओं को उठा रही है? माडिया को क्या हमारे जीवंत जनतंत्र के समंजित अंग की तरह काम करना चाहिए और लोकहित के लक्ष्य पूरे करना चाहिए? अथवा, अन्य किसी उद्योग की भांति अपने व्यावसायिक हितों को पूरा करना चाहिए? या, इन दोनों भूमिकाओं के बीच कोई संतुलन स्थापित किया जा सकता है? इस बीच उपलब्ध माडिया कवरेज़ को हम उत्तम और सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने वाली तथा बाज़ वक्त़ों पर सनसनीखेज़ तथा दूसरों की संवेदनाओं से खिलवाड़ करने वाली कवरेज़ के बीच गोते लगाते हुए देख सकते हैं।

मुद्दे बहुत हैं लेकिन अभी इतना ही......!

Friday, April 8, 2011

......दोस्तो से है

खुशी भी दोस्तो से है,


गम भी दोस्तो से है,



तकरार भी दोस्तो से है,

प्यार भी दोस्तो से है,



रुठना भी दोस्तो से है,

मनाना भी दोस्तो से है,



बात भी दोस्तो से है,

मिसाल भी दोस्तो से है,



नशा भी दोस्तो से है,

शाम भी दोस्तो से है,



जिन्दगी की शुरुआत भी दोस्तो से है,

जिन्दगी मे मुलाकात भी दोस्तो से है,



मौहब्बत भी दोस्तो से है,

इनायत भी दोस्तो से है,



काम भी दोस्तो से है,

नाम भी दोस्तो से है,



ख्याल भी दोस्तो से है,

अरमान भी दोस्तो से है,



ख्वाब भी दोस्तो से है,

माहौल भी दोस्तो से है,



यादे भी दोस्तो से है,

मुलाकाते भी दोस्तो से है,



सपने भी दोस्तो से है,

अपने भी दोस्तो से है,



या यूं कहो यारो,

अपनी तो दुनिया ही दोस्तो से है

Thursday, January 27, 2011

रहना तो इसी दलदल में है..!

मैं अनमने मन से लौटा। मन में यह सवाल कचोट रहा था कि मैं जिस कार्यक्षेत्र में कदम रख रहा हूँ वह वेश्या या दलाली का तो नहीं है। यह मन की कचुआहट किसी भी नवागंतुक पत्रकार में होना लाजिमी है। यह सवाल मेरे ही संस्थान में लगे पुस्तक मेले में “मीडिया- वेश्या या दलाल” पुस्तक पढ़ने के बाद मन में उठा। यह मेला संस्थान के पुस्तकालय विभाग की ओर से आयोजित किया गया था। जिसमें तकरीबन बारह-पद्रह पुस्तक वितरक भिन्न-भिन्न प्रकाशकों की पुस्तकों की बिक्री कर रहे थे। इस प्रदर्शनी में पचहत्तर रुपये से लेकर नब्बे हजार रुपये तक की किताबें बिकने की कतार में थीं। कुछ किताबों को उलट-पलट कर देखने लगा। देखने का सिलसिला जारी था। एक स्टॉल से दूसरे, दूसरे से तीसरे......।

मेरी नज़र हिन्दी की किताबों पर थी जो अब तक नज़र नहीं आ रहीं थीं। 6-7 स्टॉल पार करने के बाद “ मेरी आस्था भारत” श्री अटल बिहारी वाजपेयी कृत पर पड़ी। इस पुस्तक में अटल जी ने अपनी सारी स्मृतियों को शब्दों और चित्रों के माध्यम से संजोया है। एक दूसरी पुस्तक “INDIA- 150 YEARS IN PHOTOGRAPHS” जिसमें भारतगाथा के 150 वर्षों को चित्रों के माध्यम से संजोया गया है। इस प्रदर्शनी कुछ किताबें ज्ञानवर्धक थीं सोचा खरीद लूँ पर मेरी तंग जेब इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। वहाँ उपस्थित छात्र अपनी मन-पसंद पुस्तक देख रहे थे। कुछ के चेहरे खुश तो कुछ के चेहरे में मायूसी साफ झलक रही थी। समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि यह मायूस धड़ा हिन्दी पाठक वर्ग ही है। मायसी काफ़ी हद तक ठीक भी लगती है क्योंकि इस पुस्तक मेले में हिन्दी किताबों की तादात भी कम थी। हिन्दी पर अंग्रेजी की किताबें भारी थीं। संस्थान के विभागों के विभागाध्यक्ष भी इस प्रदर्शनी में अपनी उपस्थिती दर्ज करा रहे थे। उनके साथ छात्रों की एक छोटी टोली थी। छात्र अपनी पसंद की पुस्तकें उनसे पुस्तकालय के लिए रेफर करवा रहे थे। कुछ किताबों के नाम वे स्वयं सुझा रहे थे कि फलां किताब अच्छी है। मेले में सब इधर-उधर घूम रहे थे। मैं भी घूम रहा था कि मेरी नजर कोने में पड़ी एक किताब पर पड़ी। मैं सरपट भागकर उसको जल्द से जल्द पा लेना चाहता था। यह किताब अंकुर बुक डिस्ट्रीब्यूटर के स्टॉल के एक कोने में पड़ी थी। दरअसल इस किताब के शीर्षक “मीडिया-वेश्या या दलाल” ने मुझे अपनी ओर खींचा था। यह किताब दिल्ली के ही खोजी पत्रकार अखिलेश अखिल ने लिखी थी। किताब राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, गांव-गंवई और इसके चक्रव्यूह में फंसे अच्छे-बुरे लोगों, नेताओं, दलालों और लोकतंत्र को कलंकित करने वाले मानवों व कथित महामानवों को चरित्रित करती है। तब की पत्रकारिता और आज का सच, तब की राजनीति और आज की हकीकत, तब के लोकतंत्र और आज के लोकतंत्र के रक्षकों की एक-एक बात और करतूतों को भी उजागर करती है। हालांकि इस किताब में ऐसे कई आलेखों, रपटें शामिल नहीं किया गया है जिन्हें शब्द-चित्रों के जरिये आधुनिक लोकतंत्र के कथित लंबरदारों की पोल खोली गई थी। इसमें केवल राजनीति की ही बात नहीं है, जीवन के अनेक रंगों को भी इसमें शामिल किया गया है। इस पुस्तक को कई खण्डों में बाँटकर समाज, देश और राजनीतिक व्यवस्था को समझाने की कोशिश की गई है। यानी इस पुस्तक में हर शक्ल व व्यवस्था देखी जा सकती है जो अत्यंक मोहक है और विद्रुप भी। पुस्तक पढ़ने के बाद मन में एक सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे बिना पत्रकारिता की जा सकती है? इस सवाल का ज़िक्र मैंने अपने मित्र कुलदीप से किया। वह मानता है कि भ्रष्टाचार से अछूते रहकर भी पत्रकारिता की जा सकती है। उसने मुझे कुछ ईमानदार और सफल पत्रकारों के नाम भी बताए। लेकिन वह भी मीडिया हाउस के दबाव को लेकर चिंतित है। उसकी बात सुनकर कुछ राहत मिली। फील्ड में घुसने पर क्या होगा, पता नहीं। अब रहना तो इसी दलदल में है।

Friday, January 14, 2011

कहां गया आधी रात का वादा ?






तिरेसठ या चौसठ वर्ष अनंत देश के जीवन में कुछ पलों की तरह होते हैं, परंतु अन्याय, अत्याचार, असमानता और असंतोष झेलने वाले असंख्य लोगों के लिए ये वर्ष सदियों की तरह कटे हैं। एक ही कालखंड ने एक ही देश के अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग प्रभाव छोड़ा है। 14 अगस्त 1947 की आधी रात को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसद में जो भाषण दिया था, उसे साहित्य धरोहर की तरह माना गया है। 'जब दुनिया सो रही होगी, भारत जागेगा । स्वतंत्रता और जीवन की सुबह होगी। इतिहास में कभी-कभी ऐसा क्षण आता है, जब हम पुरातन से निकल कर नए युग में प्रवेश करते हैं...। सदियों से शोषित देश की आत्मा जागती है और इस अवसर पर हम शपथ लेते हैं जनता और मानवता की सेवा की।' भारत के गौरवशाली अतीत ती दुहाई देते हुए नेहरूजी ने देश के उज्ज्वल भविष्य की कामना की थी। नेहरू के आदर्श और आज के यथार्थ भारत में सदियों के फासले हैं। देश के भीतर अनेक देश बन गए हैं और उत्तर-पूर्व के प्रांतों में अतिवादी संगठन अपनी समानांतर सरकारें चला रहें हैं। कश्मीर में व्यवस्था पूरी तरह ठप्प हो गई है। जिस संसद में नेहरूजी ने वह भाषण दिया था, उस संसद में सवाल पूछने के पैसे मांगे जाते हैं। सांसदों को जिस भाव में पौष्टिक भोजन मिलता है, उस भाव में आवाम को कंकर-पत्थर भी नहीं मिल सकते। उस महान भाषण में नेहरूजी ने कहा था कि स्वतंत्रता और शक्ति के साथ उत्तरदायित्व आता है और इस संसद में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को उत्तरदायित्व को वहन करना है। स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर हर चुना हुआ सांसद अपने दिल पर हाथ रखकर अपने आचरण की स्वयं परीक्षा करें। अगर वह ईमानदारी से आत्मावलोकन करता है तो संसद की कैंटीन में उपलब्ध सस्ता और पौष्टिक भोजन उसके गले से नहीं उतर सकता। आवाम की सुविधाएँ घटती और सांसदों के वेतन व सुविधाएं बढ़ती रहती हैं तथा महान संसद में एक स्वांग चलता रहता है। देश के सबसे बड़े जलसाघर में एक फार्स खेला जा रहा है और संसद में महान नेताओं की आदमकद तस्वीरों पर शर्म के भाव अनदेखे किए जा रहे हैं।


उस महान भाषण में नेहरूजी ने कहा था कि सभ्यता की सुबह से ही भारत अपनी अंतहीन तलाश में निकला और अपने चिन्ह छोड़ने वाली सदियां भारत के महान प्रयास और उसकी सफलताओं और विफलताओं से भरी पड़ी हैं। अच्छे-बुरे वक्त से गुजरते हुए भारत ने नैतिकता और आदर्श की तलाश जारी रखी और आज बुरा वक्त गुजर चुका है और भारत स्वयं को पुन: खोजेगा...नए शिखर हमारी राह देख रहे हैं।

आजाद भारत ने नैतिकता और आदर्श जीवन मूल्य खो दिए, जिसे बकौल नेहरू वह सदियों से तलाश रहा है था। हमारी सारी उपलब्धियों में चुटकी भर नैतिकता के अभाव के कारण वह आह्लाद नहीं है जो जीवन की सार्थकता देता है। कई बार लगता है कि महात्मा गांधी का प्रभाव कालखंड भारत का एक स्वन था, हमारी हकीकत तो हमारा भ्रष्ट आचरण ही है। इस घोर अनैतिकता को लिए हर भारतीय जवाबदार है। हमने गलत चुनाव किए हैं और केवल वे लोग ईमानदार बने रहें, जिन्हें बेईमानी के अवसर नहीं मिले। आदर्शविहीन सफलताएँ और अनैतिकता से प्राप्त उपलब्धियों का असमान वितरण ऐसे ही हुआ, जैसे अँधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह के देय. नेहरुजी ने अपने भाषण में कहा था कि भारत पूर्व में उगा नया सितारा है जो एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया को राह दिखायेगा। उन्होंने आशा जताई थी कि आशा का तारा अवाम का विश्वास नहीं तोड़ेगा। आज एशिया के अनेक देशों से हमारे संबंध खराब हैं और जनता के साथ विश्वासघात हुआ है।

क्या महान संसद भवन में 14 अगस्त की आधी रात को नेहरू द्वारा दिए गए भाषण के शब्द आज भी गूंजते हैं? जब आम आदमी की आवाज ही घुट गई है, तब महान नेता की वाणी कैसे गूंजेगी ?