Monday, April 18, 2011

पत्रकारिता- धंधा बनाम सामाजिक सरोकार ...!

पत्रकारिता जन-सेवा का पर्याय है । राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति में जनसंचार माध्यमों का अप्रतिम योगदान है। मीडिया ने विकास के हर पहलु को अपनाया किन्तु अभी तक राष्ट्र के आधार गांवों तक इसकी दृष्टि नहीं गई। आजकल पत्रकारों की सोच शहरी हो गई है। वे गांवों को अपराध, कुरीति, अव्यस्था एवं पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं। कृषि और ग्राम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है एवं 70 फीसदी भारतियों के जीवन स्रोत है। राष्ट्रीय पत्रों में मात्र 6-7 प्रतिशत स्थान ही कृषि, ग्रामोद्योग, एवं विकास से संदर्भित समस्यायों को मिलता है जो चिंतनीय है। खेती, पशु-पालन, बागवानी, हस्तकौशल पहले काफ़ी विकसित था जिसे आन्ग्लशास्कों ने बड़ी चालाकी से श्रीहत किया।

सम्प्रति जनसंचार ही विकास के पर्याय हैं। पत्रकारिता तो अभियक्ति की गहन साधना है। अपने किसानो और उनके गांवों में विकास की ज्योति कैसे प्रतिस्फुटित हो इसी पर ध्यान देकर पत्रकारिता अपने लक्ष्य को पूरा कर सकती है। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं की संख्याओं का कई अखबारों और टेलीविज़न चैनलों में कोई ज़िक्र नहीं हुआ था। इनमें से हर एक चीज़ एक अजीबोगरीब तरीके से दर्शाती है कि भारत का ब्रेव न्यू वर्ल्ड किस तरफ जा रहा है। भारी कटाव का यह एक ज़बरदस्त मापक है। उस खाई का जो एक तरफ तो है पाए हुओं और ज़्यादा पाए हुओं के बीच, और दूसरी तरफ खोए हुओं और हताश लोगों के बीच। हाल के दशकों में देश में टीवी, रेडियो और समाचारपत्र उद्योग में बेतहासा वृध्दि हुई है जिसे देखते हुए उम्मीद पैदा होती है कि इन प्रचार माध्यमों की भूमिका, दायरा और सार्थकता भी वर्ष 2000 की तुलना में खूब बढ़ गई होगी। साथ ही इन माध्यमों का कार्यक्षेत्र भी अब महानगरों तक सीमित नहीं होगा। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में शायद ही कोई बदलाव आया है। इसका कारण यह है कि इन सबमें आपस में समाज के उस वर्ग तक पहुंचने की होड़ लगी रही जिसकी क्रय क्षमता ज्यादा थी। इसी का नतीज़ा है कि इन माध्यमों की गांवों तक पहुंच और कवरेज़ क़रीब-क़रीब नाममात्र की है।

मीडिया परिदृश्य में हुए इन बदलावों ने अनेक चिंताओ और आशंकाओं को भी जन्म दिया है। मीडिया से लोगों की अपेक्षाओं और मीडिया को क्या करना चाहिए तथा वह उन्हें क्या उपब्ध करा सकता है, इस बारे में पुरानी धारणा बदली है। उपलब्ध कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु को लेकर भी चिंताएं हैं- क्या वे मानवीय संवेदना को ठेस पहुंचा रही हैं? क्या वे हमारे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के अनुरूप हैं? क्या मीडिया घरानों के व्यावसायिक हितों के लिए समाचार, मनोरंजन और शिक्षा के लक्ष्यों की बलि दी जा रही है? क्या मीडिया कृषि व ग्रामीण समस्याओं को उठा रही है? माडिया को क्या हमारे जीवंत जनतंत्र के समंजित अंग की तरह काम करना चाहिए और लोकहित के लक्ष्य पूरे करना चाहिए? अथवा, अन्य किसी उद्योग की भांति अपने व्यावसायिक हितों को पूरा करना चाहिए? या, इन दोनों भूमिकाओं के बीच कोई संतुलन स्थापित किया जा सकता है? इस बीच उपलब्ध माडिया कवरेज़ को हम उत्तम और सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने वाली तथा बाज़ वक्त़ों पर सनसनीखेज़ तथा दूसरों की संवेदनाओं से खिलवाड़ करने वाली कवरेज़ के बीच गोते लगाते हुए देख सकते हैं।

मुद्दे बहुत हैं लेकिन अभी इतना ही......!

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