पत्रकारिता जन-सेवा का पर्याय है । राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति में जनसंचार माध्यमों का अप्रतिम योगदान है। मीडिया ने विकास के हर पहलु को अपनाया किन्तु अभी तक राष्ट्र के आधार गांवों तक इसकी दृष्टि नहीं गई। आजकल पत्रकारों की सोच शहरी हो गई है। वे गांवों को अपराध, कुरीति, अव्यस्था एवं पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं। कृषि और ग्राम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है एवं 70 फीसदी भारतियों के जीवन स्रोत है। राष्ट्रीय पत्रों में मात्र 6-7 प्रतिशत स्थान ही कृषि, ग्रामोद्योग, एवं विकास से संदर्भित समस्यायों को मिलता है जो चिंतनीय है। खेती, पशु-पालन, बागवानी, हस्तकौशल पहले काफ़ी विकसित था जिसे आन्ग्लशास्कों ने बड़ी चालाकी से श्रीहत किया।

मीडिया परिदृश्य में हुए इन बदलावों ने अनेक चिंताओ और आशंकाओं को भी जन्म दिया है। मीडिया से लोगों की अपेक्षाओं और मीडिया को क्या करना चाहिए तथा वह उन्हें क्या उपब्ध करा सकता है, इस बारे में पुरानी धारणा बदली है। उपलब्ध कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु को लेकर भी चिंताएं हैं- क्या वे मानवीय संवेदना को ठेस पहुंचा रही हैं? क्या वे हमारे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के अनुरूप हैं? क्या मीडिया घरानों के व्यावसायिक हितों के लिए समाचार, मनोरंजन और शिक्षा के लक्ष्यों की बलि दी जा रही है? क्या मीडिया कृषि व ग्रामीण समस्याओं को उठा रही है? माडिया को क्या हमारे जीवंत जनतंत्र के समंजित अंग की तरह काम करना चाहिए और लोकहित के लक्ष्य पूरे करना चाहिए? अथवा, अन्य किसी उद्योग की भांति अपने व्यावसायिक हितों को पूरा करना चाहिए? या, इन दोनों भूमिकाओं के बीच कोई संतुलन स्थापित किया जा सकता है? इस बीच उपलब्ध माडिया कवरेज़ को हम उत्तम और सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने वाली तथा बाज़ वक्त़ों पर सनसनीखेज़ तथा दूसरों की संवेदनाओं से खिलवाड़ करने वाली कवरेज़ के बीच गोते लगाते हुए देख सकते हैं।
मुद्दे बहुत हैं लेकिन अभी इतना ही......!
No comments:
Post a Comment