Thursday, November 10, 2011

मीडिया को आखिर ये क्यूँ नहीं दिखता..



किसी भी दिन का कोई भी अख़बार उठा लीजिए। आपको दो पन्ने खेल के, दो पन्ने फिल्म और अन्य मनोरंजन के मिल जाएंगे। विज्ञापनों के बाद यदि जगह बची तो सरकारी खबरें और फिर अपराध को पर्याप्त जगह। गोया देश में सामाजिक-आर्थिक समस्या है ही नहीं। जब देश री आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से जूझ रहा है, तब पर्यावरण, शिक्षा, खाप या किसानों की आत्महत्या के लिए  दो-चार फीसदी जगह बचती है। कई बार लगता है कि रोमन साम्राज्य की कहावत कि यदि आप हमें रोटी नहीं दे सकते हैं तो सरकाट दीजिए, अब पूरी तरह से फिट हो रही है। 

   लोग रोटी के लिए कराह रहे हैं, पर उनके सामने किरकिट (क्रिकेट) या रॉ-वन परोसा जा रहा है । येड्डी-रेड्डी, कलमाड़ी या राजा के भ्रष्टाचार की ख़बरें पढ़कर उल्टी आने लगती है, पर अख़बार वालों के लिए जरूरी है येड्डी (येदियुरप्पा) की जमानत। क्या सचिन का शतक हजारों-लाखों की भूख मिटा देगा? क्या मोहम्मद आमिर, सलमान बट्ट या मोहम्मद आसिफ को जेल में डालने से समाज का भला होगा? नहीं न, फिर भी अख़बार रंगे पड़े हैं इन खबरों से। इसके बजाय किसानों की छीनी जा रही जमीन, पहले बंद पड़े कारखाने और टीसीएस या आईआईटी या जैतपुरा में फ्रेंच कम्पनी के नाभिकीय रियेक्टर के लिए किसानों का सड़क पर आना समाज हित के लिए ज़्यादा खास है, पर ज़्यादा अख़बारों, विशेषकर भाषाई अख़बारों में ये ख़बरें बिलकुल गायब हैं। क्या शाहरुख खान से ये ख़बरें ज़्यादा खास या दिलचस्प नहीं हैं? पर क्यों दे वे ये ख़बरें? धर्म की तरह मनोरंजन भी लोगों को भूखे ही मीठी नींद सुला सकता है। जब लोग सो जाएंगे तो सियासती लोगों के खिलाफ़ कैसे बोलेंगे। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी और सियासती लोगों की मदद करना तो अख़बार वालों की मजबूरी है।
  यहां विरोध मनोरंजन से नहीं है, पर जब हर जगह मनोरंजन ही हो और समाज को हाशिये पर डाल दिया जाए तो तकलीफ होती है। इसको शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे मुद्दों से नौ गना ज़्य़ादा तरजीह मिल रही है और सामाजिक मुद्दों को कोने में पटक दिया गया है। तब दिल और दिमाग प्रचार माध्यमों की ईमानदारी पर सवाल खड़े करने लगता है। भूखे पेट क्या लेडी गागा या शाहरुख खान को देखा जा सकता है? भारत की जीत को सराहा जा सकता है? फार्मुला-वन रेस से भारत को क्या मिलेगा ? सभी अख़बार फार्मुला-वन को जोरशोर से प्रचार कर रहे थे, जो वैभव का फूहड़ प्रदर्शन और ग़रीबों का मजाक है।
  पेट्रोल के बढ़ते दामों के खिलाफ रोजाना रोना रो रहे हैं, पर पेट्रोल के अपव्यय, विदेशी मुद्रा के दुरुपयोग के खिलाफ लिखने के बजाय एफ-वन पर पन्ने भरना कहां की समझदारी है। शायद बाजारी अर्थव्यवस्था में बाजारू चीजें परोसना उसके टिके रहने के लिए ज़्यादा जरूरी है। वैसे भी चार्ल्स डार्विन की 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट थ्योरी' ज़िंदगी के हर मोड़ पर लागू होती है। अख़बार वाले भी बाजार में सर्वाइव होना चाहते हैं, इसलिए कभी पेड न्यूज़ तो ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेजों के हाथों बिक जाते हैं और छोड़ देते हैं मतदाताओं, छात्रों को लुटने के लिए। कभी किसी ने चिंता की है लुटते बच्चों की, मध्यम वर्ग के परिवारों की। आज हर अख़बार इंजीनियरिंग कॉलेजों के विज्ञापनों, वहां होने वाले कार्यक्रमों से पटे हुए हैं।
  द हिंदु ने एक ख़बर छापी थी कि पिछले पंद्रह वर्षों में तकरीबन ढाई लाख लोग आत्महत्या की है, पर कितने पत्रकारों ने इन आत्महत्याओं की जड़ में जाकर मामले की तहकीकात करने की कोशिश की है। दूसरी ओर इन्हीं किसानों के उगाए करास से बने कपड़ों को पहनकर लैक्मे फैशनवीक आयोजित हुआ, जिसे कवर करने के लिए 512 पत्रकार मौजूद थे।
  क्रिकेट शुरू होते ही हर चैनल वाला सुबह से शाम तक ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर और सपर में क्रिकेट परोसता दिखता है, पर सड़कों के लिए छीनी गई जमीन, बेघरबार हुए किसान, टूटे हुए मकान उन्हें दिखाई नहीं देते। कहीं पर भी क्रिकेट हो, सुरक्षा के नाम पर कई दिनों के लिए स्टेडियम के आसपास काम करने वालों की रोजी-रोटी छीन ली जाती है, पर पत्रकारों को उनकी भूख, उनका दर्द सुनाई नहीं पड़ता। वे युवराज, हरभजन के ठहाकों, नाच की थापों या सचिन-राहुल की शतक-अर्द्धशतक में मशगूल हो जाते हैं। उनकी निगाह इनकी बीवियों में सौन्दर्य बोध ढूढ़ने लगती है। डाइनिंग टेबल पर क्या खाया जा रहा है, क्या परोसा जा रहा है, पर इनको उगाने वाले, इनको बनाने वाले पूरे चलचित्र से ओझल हैं।
  यूरोप में जब भी कोई कारखाना खोला जाता है, तब जिन किसानों की जमीन अधिग्रहित की जाती है, उसे उसी कारखाने में नौकरी मिलती है, पर भारत में हर खाने, हर संस्था के समय छीनी गई जमीन के मालिक सड़क पर आ जाते हैं। बाद में कारखाने बंद हो जाते हैं और जमीन बड़े-बड़े बिल्डरों के लिए तब्दील हो जाती है। अख़बार वालों को टीसीएस, इंफोसिस या अमेरिका के लिए सस्ते इंजीनियर बनाने वाले आईआईटी की फिक्र है, किसानों की नहीं। फिर पंद्रह वर्षों में कारखानों की नौकरियां कम ही हुई हैं। टिस्को के पास 1991 में पौन लाख से अधिक कर्मचारी थे और वह दस लाख टन लोहा उत्पादित करता था। 2005 में उसका उत्पादन तो पांच गुना बढ़ गया, पर कर्मचारी सिर्फ चावालिस हजार रह गये। इसी तरह नब्बे के दशक में चौबीस हजार कर्मचारियों की मदद से दस लाख वाहन बनाती थी।
अब यह कम्पनी चौबीस लाख वाहन बनाती है, साढ़े दस हजार कर्मचारियों के सहारे। यही हाल भारत की अधिकतर कंपनियों  का है।  इनका मुनाफा और उत्पाद तो दिनोदिन बढ़ता जा रहा है लेकिन यहाँ काम करने वाले कामगारों/मजदूरों की गिनती कम होती जा रही है । जि पर ओचने की ज़रूरत है। अब इन कारखाने के विस्थापितों का पता लगाकर उनकी समस्याओं को हल करने वाला कोई नहीं। क्या कोई यह पता नहीं नहीं लगा सकता कि जो कंपनियां बंद हो गई हैं, उन्हीं की जमीन पर विप्रो, टीसीएस या इंफोसिस आ जाए। कुछ ख़बरों के अनुसार दिल्ली में एक लाख महिलाएं झाड़ू-पोछे का काम कर रही हैं, वेश्यावृत्ति कर रही हैं और यह पिछड़े राज्यों से आई हैं। मीडिया की नज़रों से यह सब गायब है। क्या भारतीय मीडिया की नज़रों में कभी गोदान के होरी-धनिया, रंगभूमि के सूरदास और मोहनदास का मोहनदास विश्वकर्मा आएंगे। बाजार-अर्थव्यवस्था में अभी तो ऐसा नहीं लगता। इसलिए हमें प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ मानने का भी हक़ नहीं है। हम भी न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका जैसे बहक गए हैं। 

देश की ये नौजवां पीढ़ी फिरंगी हो गई..


शायरी जितनी सहज हो उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है- यही वाक्य जितेंद्र "प्रीतम" के पूरे काव्य-कर्म का आधार वाक्य है। 
बेहद संज़ीदगी से अदब की दुनिया में अपनी दस्तक दे रहे इस रचनाकार की ग़ज़िलयात का लम्स देर का ज़ेहन में महसूस 
होता है। जितेंद्र की शायरी उस्तादाना दांव-पेंच से दूर आम आदमी की जुबान में संवाद करती नज़र आती है। उसके रदीफ़ो-कवाफ़ियात
आम आदमी की ज़िदगी से त' अल्लुक़ रखते हैं।
13 फरवरी सनु 1978 को दिल्ली में जन्में जितेंद्र कुमार ने हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तक अध्ययन किया और वर्तमान में एक निजी कम्पनी में कार्यरत हैं।
जितेंद्र प्रीतम की शायरी सुनने वालों को अपनी-सी लगती है, और यही किसी रचनाकार की सफलता की कसौटी है। जितेंद्र दर्शन से लेकर 
मानवीय संवेदना तक तमात विषयों पर शेर कहते हैं, और उनका हर शेर एक मुक़म्मल एहसास की चादर ओढ़कर सामने आता है।
उन्हीं की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। यह आज के मौजूदा दौर प्रसंगिक सी लगती है।

बन गई बाज़ार दुनिया एक मण्डी हो गई
आज वो इन्सानियत की आग ठण्डी हो गई.

कपड़े अब अलमारियों में सजते हैं, तन पर नहीं
बेहयाई ओढ़ कर तहज़ीब नंगी हो गई.

जो बुजुर्गों के अदब में बारहा झकुती रही
शर्म के सुरमे से रोशन आंख अंधी हो गई.

करती है बेज़ा नक़ल अंग्रेजों की हर बात में 
देश की ये नौजवां पीढ़ी फिरंगी हो गई.

सरकार ने कितनी रियायत दी है कुल आवाम को 
दाल-आटा छोड़ कर हर चीज मंदी हो गई. 
(.यहां मुझे लगा कि पेट्रोल भी जो़ड़ दूं, फिर लगा कि रचनाकार के साथ ज्यादती होगी )

घोटालों की कालिख़ से काले चेहरे हैं नेताओं के
दौर-ए-नौ में ये सियासत कितनी गंदी हो गई.

देखकर "प्रीतम" इसे गिरगिट भी शर्माने लगा
शख़्सियत इंसान की कितनी दुरंगी हो गई.

Thursday, November 3, 2011

सवाल सात अरबवें बच्चे की दुनिया का.


भी़ड़ का भगवान कौन..बहस इस बात पर हो रही है कि दुनिया का सात अरबवां बच्चा किस देश में पैदा हुआ । किस मां ने दुनिया को आंकड़ों का यह बाजीगर दिया। किस देश ने आबादी की इस बुलंदगी का सजदा किया। भीड़ के इस इजाफे से हैरान और परेशान होने के बजाय हम जश्न मना रहें हैं। अपनी तादाद पर खिखिया रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं।  31 अक्टूबर को दुनिया की आबादी सात अरब हो गई है।
 इसको लेकर मीडिया ने भी अपने-अपने गरम तवे लेकर अलग-अलग तरह से चने भूनने की कोशिश की है। 
 वैसे ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो आबादी के इस आंकड़े को उपलब्धि मान रहे हैं। दरअसल, जब से मनुष्य को एक संसाधन माना जाने लगा है, मनुष्य की जगह उसे मानव संसाधन कहा जाने लगा है, तब से दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है, जो बढ़ती हुई आबादी को चुनौती नहीं मानते, पर हमें सात अरब आबादी को चुनौती के रूप में ही देखना चाहिए, क्योंकि धरती की करीब एक तिहाई आबादी को न तो दो वक्त का भोजन मिल पा रहा है और न ही उसके लिए रोजगार की कोई स्थायी व्यवस्था है। इसको लेकर मीडिया में कोई सरोकर देखने को नहीं मिल रहा है कि आबादी पूरे विश्व के लिए भयानक खतरा है। इसे दिखाने के लिए मीडिया ने आंखों में टीआरपी पाने की काली पट्टी बांध रखी है। इसीलिए उसे सारी  समस्याएं एक सी नजर आती हैं।  अब जमाना पूंजीवाद का है, हम पूंजीवाद के सबसे क्रूर चेहरे के सामने खड़े हैं, इसलिए गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने, उनके लिए स्थाई रोजगार की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता से ही नदारद हो गए हैं।
हकीकत तो यह है कि इनका विकासशील देशों की बजाय अमीर और विकसित देशों के कारण ज्यादा नुकसान हुआ है। कुल मिलाकर इस समय यह सवाल अहम नहीं है कि सात अरबवें बच्चे ने कहां जन्म लिया? वह लखनऊ के नजदीक एक गांव में जन्मी नरगिस है या सुदूर मनीला में पैदा हुई डानिका मे कमाचो? असल में ये घोषणाएं प्रतीकात्मक हैं, जो बढ़ती आबादी के साथ ही लड़कियों पर छाए संकट की ओर इशारा कर रही हैं। अब बहस तो इस पर होनी चाहिए कि जब नरगिस और डानिका बड़ी होंगी, तब उनकी दुनिया कैसी होगी? क्या वे खुली हवा में सांस ले सकेंगी और क्या उनके सपनों को पंख लग सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि दुनिया की आबादी डेढ़ दशक से कम समय में एक अरब बढ़ गई है। जब ये दोनों बच्चियां दस वर्ष की होंगी, तब दुनिया की आबादी आठ अरब हो जाएगी। यानी, बढ़ती हुई आबादी मुसीबतों की जड़ तो अब ही बन चुकी है, यदि उस पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव आबादी हम मनुष्यों के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाएगी। न धरती का आकार बढ़ाया जा सकता है और न ही प्राकृतिक संसाधनों की तादाद, यह यही तथ्य याद रखें।
इधर एक और चौकाने वाला सच सामने आ गया है कि हमारे देश भारत में आधी आबादी ग़रीबी के अंधेरे तले अपना जीवन बिताने को मजबूर है। दरअसल अभी हाल में ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी की गई मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में, दुनिया के सबसे ज़्यादा बहुआयामी ग़रीब रहते हैं। भारत में 61 करोड़ लोग ग़रीब हैं, जो कि देश की आधी आबादी से भी ज़्यादा है। 
हालांकि जनसंख्या के इस नए रिकार्ड बनने पर चिंताएं अत्याधिक हैं। पृथ्वी पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के साथ साथ ग़रीबी की बढ़ती दर भी चिंता का एक विषय बना हुआ है.
आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि पृथ्वी आखिर कितने और दिनों तक निरंतर बढती हुई जनसँख्या का भार सह सकेगी?
ये पाया गया है कि जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि विकासशील देशों में हो रही है.
विश्व के 10 सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों में सिर्फ़ तीन विकसित देश अमरीका, रूस और जापान शामिल हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के कारण समाज में मृत्युदर में गिरावट आती है और जन्म दर में वृद्धि।
संयुक्त राष्ट्र के ताज़े अनुमान के मुताबिक़ साल 2050 तक दुनियां की 86 प्रतिशत आबादी विकसित इलाक़ों में निवास करेगी। जबकि 2050 तक जनसंख्या में होने वाली वृद्धि में विकासशील देशों का योगदान भी 97 प्रतिशत रहेगा. जनसंख्या वृद्धि से एक और रुझान सामने आया है कि- ग्रामीण आबादी का पलायन और शहरी आबादी का बढ़ना। वर्ष 1800 में दुनिया की तीन फीसदी से भी कम आबादी शहरों में रहती थी, जबकि वर्ष 2008 के अंत तक यह आबादी 50 फीसदी से भी ऊपर पहु्ंच चुकी है। यह शहरी आबादी ठीक उतनी ही जितनी भारत में ग़रीबों की संख्या। अब एक करोड़ या उससे ज्यादा की आबादी वाले 26 महानगर हो गए हैं। इसमें टोकियो, गुआनजा, सियोल, शंघाई, दिल्ली, मुंबई, मनीला, जाकार्ता, कराची, ओसाका, ढाका, कोलकाता और बीजिंग शामिल हैं।
आंकड़ों के इस माकड़जाल की भी अपनी एक कहानी है। जीवन के इस उतार-चढ़ाव में जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की रफ्तार भी कभी मद्धिम तो कभी तेज होती रही है। मसलन वर्ष 1804 में दुनिया की आबादी एक अरब थी। इसे दुगुना होने में 123 वर्ष लग गए। इसके विपरीत 1927 से 1959 यानी 32 वर्षों में ही इस वश्व की गिनती  में एक अरब का इजाफ़ा हो गया।
बढ़ते शहरीकरण से नष्ट होते जंगल और जमीन से कुदरत पर भी आबादी का बोझ भारी पड़ता जा रहा है। एक साल में इतने सारे लोग जिन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उनको दोबारा उपजाने में प्रकृति को 18 महीने लग जाते हैं। यह समीकरण मानव सभ्यता के लिए कहर सा साबित हो सकता है। धरती पर बढ़ती आबादी को कहीं और बसाने के लिए वैज्ञानिक ध्रुवों की ओर इशारा कर रहे हैं। चंद्रमा और मंगल पर इस दिशा में काम भी चल रहा है। मतलब हम आबादी को रोकने के कारगर तरीके न अपनाकर दूसरे ग्रहों पर किलबिलाने की तैयारी में हैं। खैर ये तो दूर की कौड़ियां हैं। सुकून और संसाधन की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे देशों और महाद्वीपों की ओर भी रुख करेंगे। इससे पुराने समाजों के विलीनिकरण का ख़तरा भी पैदा हो गया है, पर डरने की जरूरत नहीं है। विज्ञान ने जिस प्रकार दूरियों को कम कर दिया है, उससे इस स्थिति में बदलाव जरूरी भी हो गया है। हमें इसके लिए तैयारी भी कर लेनी चाहिए। लेकिन ये सब उनके लिए हैं जो 50 फीसदी ग़रीबी की आबादी में नहीं आते, जिनके पास दो वक्त की रोटी नहीं बल्कि जीवन पर्यंत खाने को है, जो खाए-अघाए हुए हैं। .यह सुख सुविधाएं उनके लिए ही हैं।
 हकीकत यह है कि अस्सी प्रतिशत लोग रो-रोकर जिंदगी गुजार रहे हैं। चालीस फीसदी लोग ठीक से खा नहीं रहे पा रहे हैं और अट्ठाइस फीसदी भूखे रहकर हडि्डयों का ढांचा बने जा रहे हैं। जिंदगी दुश्वार होती जा रही है। दुनिया की आबादी कशमकश में जीवन यापन कर रही है। कुछ लोग हासिल करने की होड़ में जुटे हुए हैं तो कुछ पेट की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ लोग तमन्नाओं और आरजुओं को छूने में उम्र घटा रहे हैं तो कुछ लोग दूसरों को नोचने, खसोटने, लूटने में वक्त बिता रहे हैं। सुख-सुकून, चैन-ओ-आराम सबका लुटा हुआ है। जिंदगी जीने का सलीका बुरी तरह से टूटा हुआ है। दुनिया के कई देशों में आबादी की भरमार है, भारत भी उसी मर्ज का बीमार है। हमारे देश में बच्चे पैदा होने पर जश्न केवल एक दिन मनता है। बस उस दिन के बाद से बच्चा जीवनभर रोता है। ना खाने को रोटी मिलती है ना कमाने को रोजगार। ना सपनों को पनाह मिलती है ना तमन्नाओं का जहां । एक अदद सी चाहत में जिंदगी गुजर जाती है। हर दिन चाहत पास आकर दूर हो जाती है। हर चीज देश में घटती जा रही है, लेकिन आबादी बढ़ती जा रही है। पहले रोटी, कपड़ा, मकान को लोग रोते थे। अब सड़क, पानी, बिजली और रोजगार के लिए भटकते हैं। भीड़ इस कदर बढ़ती जा रही है कि सड़कों पर जिंदगियां टकरा रही हैं। ट्रेन, बसों में ठूंस-ठूंसकर आवाम मंजिल पा रही है। जेब ढीली होती जा रही है। जिंदगी तंगी में जीवन बिता रही है।