शायरी जितनी सहज हो उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती है- यही वाक्य जितेंद्र "प्रीतम" के पूरे काव्य-कर्म का आधार वाक्य है।
बेहद संज़ीदगी से अदब की दुनिया में अपनी दस्तक दे रहे इस रचनाकार की ग़ज़िलयात का लम्स देर का ज़ेहन में महसूस
होता है। जितेंद्र की शायरी उस्तादाना दांव-पेंच से दूर आम आदमी की जुबान में संवाद करती नज़र आती है। उसके रदीफ़ो-कवाफ़ियात
आम आदमी की ज़िदगी से त' अल्लुक़ रखते हैं।
13 फरवरी सनु 1978 को दिल्ली में जन्में जितेंद्र कुमार ने हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तक अध्ययन किया और वर्तमान में एक निजी कम्पनी में कार्यरत हैं।
जितेंद्र प्रीतम की शायरी सुनने वालों को अपनी-सी लगती है, और यही किसी रचनाकार की सफलता की कसौटी है। जितेंद्र दर्शन से लेकर
मानवीय संवेदना तक तमात विषयों पर शेर कहते हैं, और उनका हर शेर एक मुक़म्मल एहसास की चादर ओढ़कर सामने आता है।
उन्हीं की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं। यह आज के मौजूदा दौर प्रसंगिक सी लगती है।
बन गई बाज़ार दुनिया एक मण्डी हो गई
आज वो इन्सानियत की आग ठण्डी हो गई.
कपड़े अब अलमारियों में सजते हैं, तन पर नहीं
बेहयाई ओढ़ कर तहज़ीब नंगी हो गई.
जो बुजुर्गों के अदब में बारहा झकुती रही
शर्म के सुरमे से रोशन आंख अंधी हो गई.
करती है बेज़ा नक़ल अंग्रेजों की हर बात में
देश की ये नौजवां पीढ़ी फिरंगी हो गई.
सरकार ने कितनी रियायत दी है कुल आवाम को
दाल-आटा छोड़ कर हर चीज मंदी हो गई.
(.यहां मुझे लगा कि पेट्रोल भी जो़ड़ दूं, फिर लगा कि रचनाकार के साथ ज्यादती होगी )
घोटालों की कालिख़ से काले चेहरे हैं नेताओं के
दौर-ए-नौ में ये सियासत कितनी गंदी हो गई.
देखकर "प्रीतम" इसे गिरगिट भी शर्माने लगा
शख़्सियत इंसान की कितनी दुरंगी हो गई.
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