Thursday, November 3, 2011

सवाल सात अरबवें बच्चे की दुनिया का.


भी़ड़ का भगवान कौन..बहस इस बात पर हो रही है कि दुनिया का सात अरबवां बच्चा किस देश में पैदा हुआ । किस मां ने दुनिया को आंकड़ों का यह बाजीगर दिया। किस देश ने आबादी की इस बुलंदगी का सजदा किया। भीड़ के इस इजाफे से हैरान और परेशान होने के बजाय हम जश्न मना रहें हैं। अपनी तादाद पर खिखिया रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं।  31 अक्टूबर को दुनिया की आबादी सात अरब हो गई है।
 इसको लेकर मीडिया ने भी अपने-अपने गरम तवे लेकर अलग-अलग तरह से चने भूनने की कोशिश की है। 
 वैसे ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो आबादी के इस आंकड़े को उपलब्धि मान रहे हैं। दरअसल, जब से मनुष्य को एक संसाधन माना जाने लगा है, मनुष्य की जगह उसे मानव संसाधन कहा जाने लगा है, तब से दुनिया में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है, जो बढ़ती हुई आबादी को चुनौती नहीं मानते, पर हमें सात अरब आबादी को चुनौती के रूप में ही देखना चाहिए, क्योंकि धरती की करीब एक तिहाई आबादी को न तो दो वक्त का भोजन मिल पा रहा है और न ही उसके लिए रोजगार की कोई स्थायी व्यवस्था है। इसको लेकर मीडिया में कोई सरोकर देखने को नहीं मिल रहा है कि आबादी पूरे विश्व के लिए भयानक खतरा है। इसे दिखाने के लिए मीडिया ने आंखों में टीआरपी पाने की काली पट्टी बांध रखी है। इसीलिए उसे सारी  समस्याएं एक सी नजर आती हैं।  अब जमाना पूंजीवाद का है, हम पूंजीवाद के सबसे क्रूर चेहरे के सामने खड़े हैं, इसलिए गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने, उनके लिए स्थाई रोजगार की व्यवस्था करने जैसे मुद्दे सरकारों की प्राथमिकता से ही नदारद हो गए हैं।
हकीकत तो यह है कि इनका विकासशील देशों की बजाय अमीर और विकसित देशों के कारण ज्यादा नुकसान हुआ है। कुल मिलाकर इस समय यह सवाल अहम नहीं है कि सात अरबवें बच्चे ने कहां जन्म लिया? वह लखनऊ के नजदीक एक गांव में जन्मी नरगिस है या सुदूर मनीला में पैदा हुई डानिका मे कमाचो? असल में ये घोषणाएं प्रतीकात्मक हैं, जो बढ़ती आबादी के साथ ही लड़कियों पर छाए संकट की ओर इशारा कर रही हैं। अब बहस तो इस पर होनी चाहिए कि जब नरगिस और डानिका बड़ी होंगी, तब उनकी दुनिया कैसी होगी? क्या वे खुली हवा में सांस ले सकेंगी और क्या उनके सपनों को पंख लग सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि दुनिया की आबादी डेढ़ दशक से कम समय में एक अरब बढ़ गई है। जब ये दोनों बच्चियां दस वर्ष की होंगी, तब दुनिया की आबादी आठ अरब हो जाएगी। यानी, बढ़ती हुई आबादी मुसीबतों की जड़ तो अब ही बन चुकी है, यदि उस पर नियंत्रण स्थापित नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव आबादी हम मनुष्यों के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाएगी। न धरती का आकार बढ़ाया जा सकता है और न ही प्राकृतिक संसाधनों की तादाद, यह यही तथ्य याद रखें।
इधर एक और चौकाने वाला सच सामने आ गया है कि हमारे देश भारत में आधी आबादी ग़रीबी के अंधेरे तले अपना जीवन बिताने को मजबूर है। दरअसल अभी हाल में ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी की गई मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में, दुनिया के सबसे ज़्यादा बहुआयामी ग़रीब रहते हैं। भारत में 61 करोड़ लोग ग़रीब हैं, जो कि देश की आधी आबादी से भी ज़्यादा है। 
हालांकि जनसंख्या के इस नए रिकार्ड बनने पर चिंताएं अत्याधिक हैं। पृथ्वी पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के साथ साथ ग़रीबी की बढ़ती दर भी चिंता का एक विषय बना हुआ है.
आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि पृथ्वी आखिर कितने और दिनों तक निरंतर बढती हुई जनसँख्या का भार सह सकेगी?
ये पाया गया है कि जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि विकासशील देशों में हो रही है.
विश्व के 10 सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों में सिर्फ़ तीन विकसित देश अमरीका, रूस और जापान शामिल हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के कारण समाज में मृत्युदर में गिरावट आती है और जन्म दर में वृद्धि।
संयुक्त राष्ट्र के ताज़े अनुमान के मुताबिक़ साल 2050 तक दुनियां की 86 प्रतिशत आबादी विकसित इलाक़ों में निवास करेगी। जबकि 2050 तक जनसंख्या में होने वाली वृद्धि में विकासशील देशों का योगदान भी 97 प्रतिशत रहेगा. जनसंख्या वृद्धि से एक और रुझान सामने आया है कि- ग्रामीण आबादी का पलायन और शहरी आबादी का बढ़ना। वर्ष 1800 में दुनिया की तीन फीसदी से भी कम आबादी शहरों में रहती थी, जबकि वर्ष 2008 के अंत तक यह आबादी 50 फीसदी से भी ऊपर पहु्ंच चुकी है। यह शहरी आबादी ठीक उतनी ही जितनी भारत में ग़रीबों की संख्या। अब एक करोड़ या उससे ज्यादा की आबादी वाले 26 महानगर हो गए हैं। इसमें टोकियो, गुआनजा, सियोल, शंघाई, दिल्ली, मुंबई, मनीला, जाकार्ता, कराची, ओसाका, ढाका, कोलकाता और बीजिंग शामिल हैं।
आंकड़ों के इस माकड़जाल की भी अपनी एक कहानी है। जीवन के इस उतार-चढ़ाव में जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की रफ्तार भी कभी मद्धिम तो कभी तेज होती रही है। मसलन वर्ष 1804 में दुनिया की आबादी एक अरब थी। इसे दुगुना होने में 123 वर्ष लग गए। इसके विपरीत 1927 से 1959 यानी 32 वर्षों में ही इस वश्व की गिनती  में एक अरब का इजाफ़ा हो गया।
बढ़ते शहरीकरण से नष्ट होते जंगल और जमीन से कुदरत पर भी आबादी का बोझ भारी पड़ता जा रहा है। एक साल में इतने सारे लोग जिन प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करते हैं, उनको दोबारा उपजाने में प्रकृति को 18 महीने लग जाते हैं। यह समीकरण मानव सभ्यता के लिए कहर सा साबित हो सकता है। धरती पर बढ़ती आबादी को कहीं और बसाने के लिए वैज्ञानिक ध्रुवों की ओर इशारा कर रहे हैं। चंद्रमा और मंगल पर इस दिशा में काम भी चल रहा है। मतलब हम आबादी को रोकने के कारगर तरीके न अपनाकर दूसरे ग्रहों पर किलबिलाने की तैयारी में हैं। खैर ये तो दूर की कौड़ियां हैं। सुकून और संसाधन की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे देशों और महाद्वीपों की ओर भी रुख करेंगे। इससे पुराने समाजों के विलीनिकरण का ख़तरा भी पैदा हो गया है, पर डरने की जरूरत नहीं है। विज्ञान ने जिस प्रकार दूरियों को कम कर दिया है, उससे इस स्थिति में बदलाव जरूरी भी हो गया है। हमें इसके लिए तैयारी भी कर लेनी चाहिए। लेकिन ये सब उनके लिए हैं जो 50 फीसदी ग़रीबी की आबादी में नहीं आते, जिनके पास दो वक्त की रोटी नहीं बल्कि जीवन पर्यंत खाने को है, जो खाए-अघाए हुए हैं। .यह सुख सुविधाएं उनके लिए ही हैं।
 हकीकत यह है कि अस्सी प्रतिशत लोग रो-रोकर जिंदगी गुजार रहे हैं। चालीस फीसदी लोग ठीक से खा नहीं रहे पा रहे हैं और अट्ठाइस फीसदी भूखे रहकर हडि्डयों का ढांचा बने जा रहे हैं। जिंदगी दुश्वार होती जा रही है। दुनिया की आबादी कशमकश में जीवन यापन कर रही है। कुछ लोग हासिल करने की होड़ में जुटे हुए हैं तो कुछ पेट की लड़ाई लड़ रहे हैं। कुछ लोग तमन्नाओं और आरजुओं को छूने में उम्र घटा रहे हैं तो कुछ लोग दूसरों को नोचने, खसोटने, लूटने में वक्त बिता रहे हैं। सुख-सुकून, चैन-ओ-आराम सबका लुटा हुआ है। जिंदगी जीने का सलीका बुरी तरह से टूटा हुआ है। दुनिया के कई देशों में आबादी की भरमार है, भारत भी उसी मर्ज का बीमार है। हमारे देश में बच्चे पैदा होने पर जश्न केवल एक दिन मनता है। बस उस दिन के बाद से बच्चा जीवनभर रोता है। ना खाने को रोटी मिलती है ना कमाने को रोजगार। ना सपनों को पनाह मिलती है ना तमन्नाओं का जहां । एक अदद सी चाहत में जिंदगी गुजर जाती है। हर दिन चाहत पास आकर दूर हो जाती है। हर चीज देश में घटती जा रही है, लेकिन आबादी बढ़ती जा रही है। पहले रोटी, कपड़ा, मकान को लोग रोते थे। अब सड़क, पानी, बिजली और रोजगार के लिए भटकते हैं। भीड़ इस कदर बढ़ती जा रही है कि सड़कों पर जिंदगियां टकरा रही हैं। ट्रेन, बसों में ठूंस-ठूंसकर आवाम मंजिल पा रही है। जेब ढीली होती जा रही है। जिंदगी तंगी में जीवन बिता रही है।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति , सार्थक, आभार.


    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.

    ReplyDelete