किसी भी दिन का कोई भी अख़बार उठा लीजिए। आपको दो पन्ने खेल के, दो पन्ने फिल्म और अन्य मनोरंजन के मिल जाएंगे। विज्ञापनों के बाद यदि जगह बची तो सरकारी खबरें और फिर अपराध को पर्याप्त जगह। गोया देश में सामाजिक-आर्थिक समस्या है ही नहीं। जब देश री आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या से जूझ रहा है, तब पर्यावरण, शिक्षा, खाप या किसानों की आत्महत्या के लिए दो-चार फीसदी जगह बचती है। कई बार लगता है कि रोमन साम्राज्य की कहावत कि यदि आप हमें रोटी नहीं दे सकते हैं तो सरकाट दीजिए, अब पूरी तरह से फिट हो रही है।
लोग रोटी के लिए कराह रहे हैं, पर उनके सामने किरकिट (क्रिकेट) या रॉ-वन परोसा जा रहा है । येड्डी-रेड्डी, कलमाड़ी या राजा के भ्रष्टाचार की ख़बरें पढ़कर उल्टी आने लगती है, पर अख़बार वालों के लिए जरूरी है येड्डी (येदियुरप्पा) की जमानत। क्या सचिन का शतक हजारों-लाखों की भूख मिटा देगा? क्या मोहम्मद आमिर, सलमान बट्ट या मोहम्मद आसिफ को जेल में डालने से समाज का भला होगा? नहीं न, फिर भी अख़बार रंगे पड़े हैं इन खबरों से। इसके बजाय किसानों की छीनी जा रही जमीन, पहले बंद पड़े कारखाने और टीसीएस या आईआईटी या जैतपुरा में फ्रेंच कम्पनी के नाभिकीय रियेक्टर के लिए किसानों का सड़क पर आना समाज हित के लिए ज़्यादा खास है, पर ज़्यादा अख़बारों, विशेषकर भाषाई अख़बारों में ये ख़बरें बिलकुल गायब हैं। क्या शाहरुख खान से ये ख़बरें ज़्यादा खास या दिलचस्प नहीं हैं? पर क्यों दे वे ये ख़बरें? धर्म की तरह मनोरंजन भी लोगों को भूखे ही मीठी नींद सुला सकता है। जब लोग सो जाएंगे तो सियासती लोगों के खिलाफ़ कैसे बोलेंगे। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी और सियासती लोगों की मदद करना तो अख़बार वालों की मजबूरी है।
यहां विरोध मनोरंजन से नहीं है, पर जब हर जगह मनोरंजन ही हो और समाज को हाशिये पर डाल दिया जाए तो तकलीफ होती है। इसको शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे मुद्दों से नौ गना ज़्य़ादा तरजीह मिल रही है और सामाजिक मुद्दों को कोने में पटक दिया गया है। तब दिल और दिमाग प्रचार माध्यमों की ईमानदारी पर सवाल खड़े करने लगता है। भूखे पेट क्या लेडी गागा या शाहरुख खान को देखा जा सकता है? भारत की जीत को सराहा जा सकता है? फार्मुला-वन रेस से भारत को क्या मिलेगा ? सभी अख़बार फार्मुला-वन को जोरशोर से प्रचार कर रहे थे, जो वैभव का फूहड़ प्रदर्शन और ग़रीबों का मजाक है।
पेट्रोल के बढ़ते दामों के खिलाफ रोजाना रोना रो रहे हैं, पर पेट्रोल के अपव्यय, विदेशी मुद्रा के दुरुपयोग के खिलाफ लिखने के बजाय एफ-वन पर पन्ने भरना कहां की समझदारी है। शायद बाजारी अर्थव्यवस्था में बाजारू चीजें परोसना उसके टिके रहने के लिए ज़्यादा जरूरी है। वैसे भी चार्ल्स डार्विन की 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट थ्योरी' ज़िंदगी के हर मोड़ पर लागू होती है। अख़बार वाले भी बाजार में सर्वाइव होना चाहते हैं, इसलिए कभी पेड न्यूज़ तो ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेजों के हाथों बिक जाते हैं और छोड़ देते हैं मतदाताओं, छात्रों को लुटने के लिए। कभी किसी ने चिंता की है लुटते बच्चों की, मध्यम वर्ग के परिवारों की। आज हर अख़बार इंजीनियरिंग कॉलेजों के विज्ञापनों, वहां होने वाले कार्यक्रमों से पटे हुए हैं।
द हिंदु ने एक ख़बर छापी थी कि पिछले पंद्रह वर्षों में तकरीबन ढाई लाख लोग आत्महत्या की है, पर कितने पत्रकारों ने इन आत्महत्याओं की जड़ में जाकर मामले की तहकीकात करने की कोशिश की है। दूसरी ओर इन्हीं किसानों के उगाए करास से बने कपड़ों को पहनकर लैक्मे फैशनवीक आयोजित हुआ, जिसे कवर करने के लिए 512 पत्रकार मौजूद थे।
क्रिकेट शुरू होते ही हर चैनल वाला सुबह से शाम तक ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर और सपर में क्रिकेट परोसता दिखता है, पर सड़कों के लिए छीनी गई जमीन, बेघरबार हुए किसान, टूटे हुए मकान उन्हें दिखाई नहीं देते। कहीं पर भी क्रिकेट हो, सुरक्षा के नाम पर कई दिनों के लिए स्टेडियम के आसपास काम करने वालों की रोजी-रोटी छीन ली जाती है, पर पत्रकारों को उनकी भूख, उनका दर्द सुनाई नहीं पड़ता। वे युवराज, हरभजन के ठहाकों, नाच की थापों या सचिन-राहुल की शतक-अर्द्धशतक में मशगूल हो जाते हैं। उनकी निगाह इनकी बीवियों में सौन्दर्य बोध ढूढ़ने लगती है। डाइनिंग टेबल पर क्या खाया जा रहा है, क्या परोसा जा रहा है, पर इनको उगाने वाले, इनको बनाने वाले पूरे चलचित्र से ओझल हैं।
यूरोप में जब भी कोई कारखाना खोला जाता है, तब जिन किसानों की जमीन अधिग्रहित की जाती है, उसे उसी कारखाने में नौकरी मिलती है, पर भारत में हर खाने, हर संस्था के समय छीनी गई जमीन के मालिक सड़क पर आ जाते हैं। बाद में कारखाने बंद हो जाते हैं और जमीन बड़े-बड़े बिल्डरों के लिए तब्दील हो जाती है। अख़बार वालों को टीसीएस, इंफोसिस या अमेरिका के लिए सस्ते इंजीनियर बनाने वाले आईआईटी की फिक्र है, किसानों की नहीं। फिर पंद्रह वर्षों में कारखानों की नौकरियां कम ही हुई हैं। टिस्को के पास 1991 में पौन लाख से अधिक कर्मचारी थे और वह दस लाख टन लोहा उत्पादित करता था। 2005 में उसका उत्पादन तो पांच गुना बढ़ गया, पर कर्मचारी सिर्फ चावालिस हजार रह गये। इसी तरह नब्बे के दशक में चौबीस हजार कर्मचारियों की मदद से दस लाख वाहन बनाती थी।